Sojat Patti, Rajasthan

कुमावत जाति का इतिहास, (History of Kumawat caste)

महोदय आपके द्वारा बताया गया कुमावत इतिहास गलत है। कुमावत (कुंबाबत) इतिहास न केवल गौरवशाली है अपितु शौर्य गाथाओं से पटा पड़ा है जिसका उल्लेख श्री हनुमानदान 'चंडीसा' ने अपनी पुस्तक ''मारू कुंबार'' में किया है। श्री चंडीसा का परिचय उस समाज से है जो राजपूत एवं कुमावत समाज की वंशावली लिखने का कार्य करते रहे हैं।

कुमावत समाज के गौरवशाली इतिहास का वर्णन करते हुए 'श्री चंडीसा' ने लिखा है कि जैसलमेर के महान् संत श्री गरवा जी जोकि एक भाटी राजपूत थे, ने जैसलमेर के राजा रावल केहर द्वितीय के काल में विक्रम संवत् 1316 वैशाख सुदी 9 को राजपूत जाति में विधवा विवाह (नाता व्यवस्था) प्रचलित करके एक नई जाति बनायी। जिसमें 9 (नौ) राजपूती गोत्रें के 62 राजपूत (अलग-अलग भागों से आये हुए) शामिल हुए। इसी आधार पर इस जाति की 62 गौत्रें बनी जिसका वर्णन नीचे किया गया है। विधवा विवाह चूंकि उस समय राजपूत समाज में प्रचलित नहीं था इसलिए श्री गरवा जी महाराज ने विधवा लड़कियों का विवाह करके उन्हें एक नया सधवा जीवन दिया जिनके पति युद्ध में वीरगति को प्राप्त हो गए थे।

श्री गरवा जी के नेतृत्व में सम्पन्न हुए इस कार्य के उपरांत बैठक ने जाति के नामकरण के लिए शुभ शुक्न (मुहूर्त) हेतु गॉंव से बाहर प्रस्थान किया गया। इस समुदाय को गॉंव से बाहर सर्वप्रथम एक बावत कॅंवर नाम की एक भाटी राजपूत कन्या पानी का मटका लाते हुए दिखी। जिसे सभी ने एक शुभ शुगन माना। इसी आधार पर श्री गरवाजी ने जाति के दो नाम सुझाए- 1. संस्कृत में मटके को कुंभ तथा लाने वाली कन्या का नाम बावत को जोड़कर नाम रखा गया कुंबाबत (कुम्भ+बाबत) राजपूत (जैसे कि सुमदाय की तरफ कुंभ आ रहा था इसलिए इसका एक रूप कुम्भ+आवत ¾ कुमावत भी रखा गया) 2. इस जाति का दूसरा नाम मारू कुंबार भी दिया गया, राजस्थानी में मारू का अर्थ होता है राजपूत तथा कुंभ गॉंव के बाहर मिला था इसलिए कुंभ+बाहर ¾ कुंबार। इस लिए इस जाति के दो नाम प्रचलित है कुंबाबत राजपूत (कुमावत क्षत्रिय) व मारू कुंबार। इस जाति का कुम्हार, कुम्भकार, प्रजापत जाति से कोई संबंध नहीं है। कालान्तर में जैसलमेर में पड़ने वाले भयंकर अकालों के कारण खेती या अन्य कार्य करने वाले कुंबावत (कुमावत) राजस्थान को छोड़कर देश के अन्य प्रांतों जैसे पंजाब, हरियाणा, गुजरात, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश में चले गए। इस कारण से कुंबावत (कुमावत) एवं उसकी गोत्रों का स्वरूप बदलता रहा। लेकिन व्यवसाय (सरकारी सेवा, जवाहरात का कार्य व कृषि) एवं राजपूत रीति-रिवाजों को आज तक नहीं छोड़ा है।

Kumawat Jaati Maru Kumbar Ka Itihaas aur Kuldevi – Full Information

!! श्रीगणेशाय नमः!!

कुमावत – मारु कुंबार जाति का इतिहास और कुलदेवी

कुमावत जाति के आज के युवाओं द्वारा अपनी जाति के इतिहास या उनकी कुलदेवी कौन है? ये जानने के लिए गूगल में सर्च की जा रही है लेकिन सही जानकारी उन्हें नहीं मिल पा रही है ऐसा मैंने देखा है !

मैं स्वयं कुमावत हूँ और मेरे पास राव हनुमानदान वल्द केसुदानजी रावचण्डीसा, पोस्ट- लाम्बिया, तहसील -जेतारण , जिला -पाली , राजस्थान द्वारा सम्वत 2031 में लिखित पुस्तक है ! अभी सम्वत 2078 चल रही है! अर्थात ये पुस्तक 47 वर्ष पुरानी है ! राव हनुमानदान के पूर्वजों के पास कुमावतों की वंशावली की प्राचीन पोथियाँ, बहियाँ है ! बोलचाल की भाषा में इन रावों को कई जगह बहीभाट भी कहा जाता है! इनके द्वारा लिखी पुस्तक के अनुसार कुमावत जाति के संक्षिप्त इतिहास की जानकारी आपको देने की कोशिश कर रहा हूँ जो कि इस प्रकार है –

संत श्रीशरणदासजी के शिष्य संत श्रीगरवाजी महाराज थे जो कि भाटी राजपूत कुल के थे ! श्रीगरवाजी महाराज वचनसिद्ध संत थे और उस समय के उस क्षेत्र के सभी राजपूत उनके अनुयायी थे एवं सत्संग में शामिल होते थे! राजपूतों में विधवा -विवाह का चलन नहीं था ! नि:संतान विधवाओं का पुनर्विवाह अर्थात नाता कर उनके जीवन में खुशियां भरने का चिंतन उनके मन में चला और राजपूतों के जिन घरों में नि:संतान विधवायें थी उनका पुनर्विवाह नाता करने का उपदेश दिया ! 6 राजपूत जाति वालों ने संत श्रीगरवाजी महाराज को पहले ही वचन दे दिया था कि गुरुदेव आप जो उपदेश देंगे उसका हम पालन करेंगे । सर्वप्रथम इन 6 राजपूत जातियों से 12 गौत्र बने थे जोकि इस प्रकार है – भाटी राजपूत से- बोरावड़ , मंगलराव, भूटिया, पोड़, लीमा। पंवार राजपूत से- दुगट, रसीयड। पड़िहार राजपूत से – मेरथा। चौहान राजपूत से – टाक । राठौड़ राजपूत से – कालोड़, कीता। गोहल राजपूत से – सुडा। कई राजपूत जातियां इसके पक्ष में आई ! जिन जिन राजपूत जातियों ने विधवा विवाह, नाता करना स्वीकार किया उनकी एक अलग जाति बनाने का प्रस्ताव आया और उस समय उनकी राजपूतों से अलग जाति शकुन लेकर बनाई गई! पुस्तक में लिखा है कि संत श्रीगरवाजी महाराज सूर्योदय के समय उन राजपूतों को साथ लेकर अपने डेरे से कुछ दूरी तक आगे बढ़े, उस समय एक कन्या पानी से भरा घड़ा सिर पर रखे हुए सामने मिली! वह कन्या पीपल सींचने जा रही थी , वैशाख मास में कुमारी कन्याओं द्वारा पीपल के पेड़ को सींचने का पुराना रिवाज है ! ऐसा माना जाता है कि पीपल सींचने से मन-वांछित फल मिलता है! श्रीगरवाजी महाराज ने कहा कि शकुन अच्छा मिला है , उन्होंने उस कन्या का नाम पूछा तो उसने अपना नाम बावतकुमारी बताया! उसके सिर पर घड़ा था और घड़े को कुंभ कहा जाता है, कुंभ और उस कन्या के नाम को साथ मिलाकर नई जाति कुंबावत क्षत्रिय बनी थी ! कुंबावत क्षत्रिय जाति जिस दिन बनी उस दिन संवत 1316 तेरह सौ सौलह वैशाख सुद 9 नवमी शनिवार स्थान जैसलमेर- राजपूताना था ! जैसलमेर के तत्कालीन राजा केहर (द्वितीय) भाटी राजपूत थे ! कुंबावत जाति राजपूतों से अलग बनने के बाद श्रीगरवाजी महाराज ने कुंबावतों को निर्देश दिया कि आज के बाद आप राजपूतों को साख नहीं देंगे और न ही उनसे साख लेंगे अर्थात कुंबावत और राजपूत आपस में विवाह नहीं करेंगे! कुंबावत के विवाह कुंबावत गौत्र में ही होंगे!

जाति-नामकरण के दिन 50 गौत्र और बने । इस प्रकार कुल 9 राजपूती जातियों से 12+50=62 गौत्र बने थे जो कि इस प्रकार है —

भाटी राजपूतों से –बोरावड़, मंगलराव, पोहड़ 'पोड़', लीमा या लांबा, खुडिया, भाटिया, माहर, नोखवाल, भीड़ानिया, सोंकल, डाल, तलफीयाड़, भाटीवाल, आईतान, जटेवाल, मोर, मंगलौड़ !चौहान राजपूतों से – टाक, बग , सुंवाल, सारड़ीवाल, गूरिया, माल , घोड़ेला , सिंघाटिया, निम्बीवाल, छापरवाल, सिरस्वा, कुकड़वाल, भरिया , कलवासना, खरनालिया ! पड़िहार राजपूतों से- मेरथा, चांदोरा, गम , गोहल , गंगपारिया, मांगर, धुतिया ! राठौड़ राजपूतों से -चाडा, रावड़, जालप, कीता, कालोड़ , दांतलेचा, पगाला, सुथोढ ! पंवार राजपूतों से- लकेसर , छापोला , जाकड़ा , रसीयड़, दुगट, पेसवा, आरोड़, किरोड़ीवाल ! तंवर राजपूतों से- गेदर , सावल , कलसिया ! गोहल राजपूत से- सुडा! सिसोदिया राजपूतों से- ओस्तवाल , कुचेरिया ! दैया राजपूत से- दैया या दहिया !

संत श्रीगरवाजी महाराज के संसार पक्ष में चार और भाई थे जो कि भाटी राजपूत से कुंबावत बने थे !इनके बोरावढजी नाम के पूर्वज थे, उनके नाम से ही इन्होंने अपना गौत्र बोरावड़ रख लिया !नए बने कुंबावतों ने अपने नाम से, पिता के नाम से, दादा के नाम से, पड़दादा के नाम से ज्यादातर गौत्रों के नाम रखे थे! राजपूतों से कुंबावत 'कुंभावत' जाति अस्तित्व में आने के बाद इनकी वंशावली लिखने के लिए अलग राव की आवश्यकता पड़ी तो संत श्रीगरवाजी महाराज ने भाटी राजपूतों एवं चौहान राजपूतों को जांचने वाले, वंशावली लिखने वाले राव चण्डीसा भदाजी व भोपाल जी को बुलवाकर कुंबावतों के उक्त 62 गोत्रों वाले के लिए राव नियुक्त किए थे! वर्तमान में इन रावों के वंशज गांव लांबिया, तहसील- जैतारण ,जिला -पाली, राजस्थान में बसते हैं और इनके पास कुंबावतों की वंशावली की जूनी पोथियां, बहियां उपलब्ध हैं!

नई बनी कुंबावत जाति के लोगों ने अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए किसी ने खेती का कार्य किया, किसी ने व्यापार किया ,किसी ने भवन निर्माण का काम सीखा, किसी ने परंपरागत कुम्हारों से मिट्टी के बर्तन बनाने का काम सीखा ! जिन्होंने मिट्टी के बर्तन बनाने का पेशा अपनाया उनको कालांतर में दूसरी जातियों के लोग कुम्हार ही कहने लगे! मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कुमावतों एवं परंपरागत कुम्हारों को अलग-अलग समझने के लिए परंपरागत कुम्हारों को बाण्डा कुम्हार कहने लगे और मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कुमावतों को मारू कुंबार कहने लगे ! बाण्डा कुम्हार के लिए बाण्डा शब्द अपनाने का कारण यह माना जाता है कि परंपरागत कुम्हार कुछ विशेष अवसरों एवं होली जैसे त्यौहार पर मुंह पर कालिख पोत कर गधे की सवारी करते एवं नग्न होकर नाचते और अपशब्द गालियां बोलते थे इसलिए उनको बाण्डा कुम्हार कहने लगे! समय के साथ परंपरागत कुम्हार जाति के लोग भी अच्छे शिक्षित हुए और ऊंचे सरकारी पदों पर आसीन हुए हैं ! पूराने रिवाज छोड़ते गए! परंपरागत कुम्हार युगों पूरानी जाति है और ये राजा दक्ष प्रजापति के वंशज माने जाते है। इनकी कुलदेवी श्रीयादे माता है ।

कुमावत, कुंभावत जाति बने हुए अभी 763 वां वर्ष चल रहा है और इनकी कुलदेवी की जानकारी नीचे दे रहा हूँ।

उक्त 62 गौत्रों के अलावा जो गौत्र और बने वह इस प्रकार हैं- खुवाल, कारगवाल, करड़वाल, केरीवाल, कंसुबीवाल, कुलचानिया, नेनेचा, भेड़वाल, लूणवाल, माचीवाल, भोड़ीवाल, सिमार, रोकण, बेनीवाल, भीवाल, धुम्बीवाल, चीन, सीहोटा, सरेलिया, घासोलिया, गोला, जलंधरा, सुवटा, हाड़ोतिया, चकरेनिया, तेरपुरा, दादरवाल, पेंसिया, ढूंढाड़ा, मलाटिया, बासनीवाल, अड़ावलिया, बम्बरवाल, भोभरिया, खटोड़, धुराण, जायलवाल, जलवानिया, रोपिया, लूंड, जींजनोदिया, फतेपुरा, बागरी, मोरवाल, लोणीवाल, नराणिया, दुबलदिया, बालोदिया, बाकरेचा, मालवीया, बागेरिया, लाडूना, घण्टेलवाल, खाटीवाल, डहीया, खरस, उबा, नागा, मंडोरा, इटारा, भड़भूडा, घेउवा, सांगर, मगरानिया, बेरीवाल, धूमानिया, बोरीवाल, नांदीवाल या नानीवाल, पांथड़िया, गुगान, बीरथलिया, नेनरवाल, बांथड़िया, बरबरिया, मुंडवा, धनारिया, रोटागन, गुगाण, धुवारिया, आणिया, देतवाल, सुथोड़, कुदाल, बलगंध, सकंदरका, राजोरिया, रतीवाल, सीधल, कुण्डलवाल, रठौड़, सोलंकीटाक, सोहल, खरेसिया, मणधणीया, मारवाल, केहुआ, मावर, होदकासिया, तूनवाल, मारोठिया, सारोठिया, लुहाणीवाल आदि। इसके बाद भी कई गौत्र बनते गए।

उपरोक्त पूरा मैटर मैंने आज के युवाओं की जानकारी के लिए स्वयं टाइप किया है उम्मीद है कुंबावत ,कुमावत जाति के इतिहास एवं कुलदेवी के बारे में उनकी जिज्ञासा अंशतः पूर्ण होगी। युवाओं के लिए मैंने प्रयास किया है यदि आपको पसंद आए तो सोशल मीडिया ,व्हाट्सएप के माध्यम से अपने स्वजातीय बंधुओं में यह जानकारी जरुर शेयर करें।

राजपूतों की जो कुलदेवियां है वह ही कुंबावतों की कुलदेवियां हैं क्योंकि राजपूतों से ही कुंबावत या कुमावत बने थे। राजपूत जातियों की कुलदेवियां इस प्रकार है- भाटी राजपूत चंद्रवंशी, कुलदेवी- बिरमानी माता, बिजासनिया माता , आईनाथ माता एवं सायंगा या स्वांगिया माता । चौहान राजपूत अग्निवंशी, कुलदेवी- आशापुरा माता। पवार राजपूत अग्निवंशी , कुलदेवी – कालका माता , संचियाय माता , बाकल माता । पड़िहार राजपूत अग्निवंश, कुलदेवी- चावंढा माता या चामुंडा माता । राठौड़ राजपूत सूर्यवंशी, कुलदेवी- राठेशरी माता, पंखनी माता। तंवर राजपूत यदुवंशी, कुलदेवी- शंकरराय माता। सिसोदिया राजपूत सूर्यवंशी, कुलदेवी- बाण माता , अंबा माता।

नारी को सम्मान दिलाने वाले, समाज-सुधारक, कुंभावत , कुमावत जाति को अस्तित्व में लाने वाले कुलगुरु , संत-शिरोमणि श्री गरवाजी महाराज ने जीवित समाधि संवत 1332 आषाढ़ वदी नवमी को जैसलमेर में लोदरवा नामक स्थान पर ली थी।

कुमावत कौनसी जाति में आते हैं?

कुमावत और कुम्हार (कुंभकार) दोनों अलग अलग जातियाँ हैं कुमावत(कुंभबाबत) 13वीं शताब्दी में जैसलमेर के लोद्रव में राजा रावल कहर द्वितीय के समय पर 9 राजपूत गौत्रों से मिलकर बनी एक जाति है जोकि विधवा विवाह के प्रचलन से बनी थी जबकि कुंभकार आदि काल से कुंभ बनाने वाली जाति है

मारू – अर्थात मरू प्रदेश के खेतीकर – अर्थात ये साथ में अंश कालिक खेती करते थे। चेजारा भी इनमें से ही है जो अंशकालिक व्‍यवसाय के तौर पर भवन निर्माण करते थे। बारिस के मौसम में सभी जातियां खेती करती थी क्‍योंकि उस समय प्रति हेक्‍टेयर उत्‍पादन आज जितना नही होता था अत: लगभग सभी जातियां खेती करती थी। सर्दियों में मिट्टि की वस्‍तुए बनती थी। इनमें दारू मांस का सेवन नहीं होता था।

बांडा ये केवल बर्तन और मटके बनाने का व्‍यवसाय ही करते थे। ये मूलत: पश्चिमी राजस्‍थान के नहीं होकर गुजरात और वनवासी क्षेत्र से आये हुए कुम्‍हार थे। इनका रहन सहन भी मारू कुम्‍हार से अलग था। ये दारू मांस का सेवन भी करते थे।

पुरबिये – ये पूरब दिशा से आने वाले कुम्‍हारों को कहा जाता थ्‍ाा। जैसे हाड़ौती क्षेत्र के कुम्‍हार पश्चिमी क्षेत्र में आते तो इनको पुरबिया कहते। ये भी दारू मांस का सेवन करते थे।

जटिया- ये अंशकालिक व्‍यवसाय के तौर पर पशुपालन करते थे। ये पानी की अत्‍यंत कमी वाले क्षेत्र में रहते है वहां पानी और घास की कमी के कारण गाय और भैंस की जगह बकरी और भेड़ पालते है। और बकरी और भेड़ के बालों की वस्‍तुए बनाते थे। इनका रहन सहन भी पशुपालन व्‍यवसाय करने के कारण थोड़ा अलग हो गया था हालांकि ये भी मारू ही थे। इनका पहनावा राइका की तरह होता था। बाड़मेर और जैसलमेर में पानी और घास की कमी के कारण वंहा गावं में राजपूत भी भेड़ बकरी के बड़े बड़े झुण्‍ड रखते है।

रहन सहन अलग होने के कारण और दारू मांस का सेवन करने के कारण मारू अर्थात स्‍थानीय कुम्‍हार बांडा और पुरबियों के साथ रिश्‍ता नहीं करते थे।

मारू कुम्‍हार दारू मांस का सेवन नहीं करती थी अत: इनका सामाजिक स्‍तर अन्‍य पिछड़ी जातियों से बहुत उंचा होता था। अगर कहीं बड़े स्‍तर पर भोजन बनाना होता तो ब्राहमण ना होने पर कुम्‍हार को ही वरीयता दी जाती थी। इसीलिए आज भी पश्चिमी राजस्‍थान में हलवाई का अधिकतर कार्य कुम्‍हार और ब्राहमण जाति ही करती है।

पूराने समय में आवगमन के साधन कम होने से केवल इतनी दूरी के गांव तक रिश्‍ता करते थे कि सुबह दुल्‍हन की विदाई हो और शाम को बारात वापिस अपने गांव पहुंच जाये। इसलिये 20 से 40 किलोमीटर की त्रिज्‍या के क्षेत्र को स्‍थानीय बोली मे पट्टी कहते थे

                                                        हिन्दू धर्म में कितनी जातियां  होती है 

                                                         हिंदू धर्मशास्त्रों ने पूरे समाज को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णो में विभक्त किया है 

जाति व्यवस्था हिंदुओं को चार मुख्य श्रेणियों में विभाजित करती है- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र।  कई लोगों का मानना कश्यप भारत में किसानों का समुदाय हैं। कश्यप भारत की एक जाति है।इनको कई स्थानों पर  कोश्यल अथवा कंशिल्य भी कहा जाता है। कश्यप जाति मुख्य रूप से हरियाणामहाराष्ट्रउत्तराखण्डजम्मू और कश्मीरपंजाबचंडीगढ़हिमाचलउत्तरप्रदेशदिल्ली और राजस्थान मे निवास करती है ये जाति उत्तरभारत मे अधिकांश में संख्या में है, जिन्हे कश्यप, खरवार, कहार, गौड़, निषाद, इत्यादि नाम से जाना जाता है। उत्तरप्रदेश में ये जाति ओबीसी में आती है। कश्यप जाति पुरातनयुग मे समृद्ध थी।

 

                                                       हिन्दू धर्म में 7 गोत्र होती है वह इस प्रकार हैं 

                     (1) अत्रि, (2) भारद्वाज, (3) गौतममहर्षि, (4) जमदग्नि, (5) कश्यप, (6) वशिष्ठ और (7) विश्वामित्र । इस सूची में कभी-कभी अगस्त्य को भी जोड़ दिया जाता है।                        

          इन आठ ऋषियों को गोत्र कारिन कहा जाता है, जिन से सभी 108 गोत्र (विशेष रूप से ब्राह्मणों के) विकसित हुए हैं।

                                                                 कायस्थ जाति की उत्पति कैसे हुई ?

1. एक जाति का नाम। कायस्थ। विशेष— कायस्थ जाति के लोग प्रायः लिखने पढ़ने तथा युध्द करने का काम करते है और ये लोग उच्च कोटि के संतपुरुष राजा महाराजा व चक्रवर्ती सम्राट होते हैं और ये लोग प्रायः सारे भारतवर्ष में पाए जाते हैं। यह लोग अपने को परब्रह्म धर्म हरि महाकाल कायस्थ भगवान श्री चित्रगुप्तजी का वंशज मानते हैं।

 

क्या कायस्थ ब्राह्मण से बड़ा है?

क्रिश्चियन नोवेत्ज़के के अनुसार, मध्यकालीन भारत में, कुछ हिस्सों में कायस्थों को या तो ब्राह्मण माना जाता था या ब्राह्मणों के बराबर माना जाता था । बाद में कई धार्मिक परिषदों और संस्थाओं ने सीकेपी की वर्ण स्थिति को क्षत्रिय के रूप में बताया।

 


क्या ब्राह्मण कायस्थ से विवाह कर सकता है?

कायस्थों को दो वर्ण/जाति दी गई है (ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों)। इसलिए एक कायस्थ लड़की किसी भी ऐसे व्यक्ति से शादी कर सकती है जो ब्राह्मण और क्षत्रिय वर्ण में आता हो । उदाहरण के लिए: कायस्थ ब्राह्मण (जाति के रूप में) और राजपूत (जाति के रूप में) के साथ विवाह कर सकते।

 

कायस्थ भारत मेंरहने वाले हिन्दू समुदाय की एक जातियों का वांशिक कुल है। पुराणों के अनुसार कायस्थ प्रशासनिक कार्यों का निर्वहन करते हैं। कायस्थ को वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मण वर्ण धारण करने का अधिकार प्राप्त है।

 

हिंदू धर्म की मान्यता हैंं कि कायस्थ धर्मराज श्रीचित्रगुप्त भगवान की संतान हैं तथा श्रेष्ठ कुल में जन्म लेने के कारण इन्हें  ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों धर्मों को धारण करने का अधिकार प्राप्त हैंं। बनारस के पंडितो द्वारा पेशवा दरबार को 1779 AD में दिए उत्तर के अनुसार चित्रगुप्त के वंशज"कायस्थ"  ब्राह्मण एवं क्षत्रिय से श्रेष्ठ हैं।

वर्तमान में कायस्थ मुख्य रूप से श्रीवास्तव, सिन्हा, वर्मा, स्वरूप, चित्रवंशी, सक्सेना, अम्बष्ठ, निगम, माथुर, भटनागर, लाभ, लाल,बसु, शास्त्री, कुलश्रेष्ठ, अस्थाना, बिसारिया, कर्ण, खरे, सुरजध्वज, विश्वास, सरकार, बसु, परदेशी, बोस, दत्त, चक्रवर्ती, श्रेष्ठ, प्रभु, ठाकरे, आडवाणी, नाग, गुप्त, रक्षित, सेन,बक्शी, मुंशी, दत्ता, देशमुख, बच्चन, पटनायक, नायडू, सोम, पाल, राव, रेड्डी, दास, मोहंती, देशपांडे, कश्यप, देवगन, अम्बानी, राय, वाल्मीकि आदि उपनामों से जाने जाते हैं।वर्तमान में कायस्थों ने राजनीति और कला के साथ विभिन्न व्यावसायिक क्षेत्रों में सफलता पूर्वक विद्यमान हैं।  वेदों के अनुसार कायस्थ का उद्गम पितामह श्रृष्टिकर्ता भगवान ब्रह्माजी हैं।उन्हें ब्रह्माजी ने अपनी काया [ध्यान योग] की सम्पूर्ण अस्थियों से बनाया था तभी इनका नाम काया+अस्थि= कायस्थ हुआ।[

 

 

मैने ये सब्जेक्ट कुमावत की हिस्ट्री नेट पर से लिया गया है अगर किसी पाठक को ऐतराज हो तो क्षमा चाहता हूँ !



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